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मायने बदलता सच !

सोमवार, 30 मार्च 2009

मैं,
जिन्दगी भर
यह मानता रहा कि
लोग सच बोलते हैं
हालांकि उम्र के
हर पड़ाव पर
सच के मायने बदले गये

मेरा,
सारा बचपन
इसी भ्रम में बीत गया कि
मुझे किसी कचरा-पेटी से लाया गया है
किसी जच्चाखाने से नही
फिर धीरे-धीरे यह समझ आ गई कि
मैं अपनी माँ का ही बेटा हूँ
वो तो किया गया मजाक था

मेरी,
जवानी में
मेरे बचपन की कोई तस्वीर
जिसमें मैं,
मासूम, भोला, सुन्दर दिखता हूँ
(वैसे सभी बच्चे मासूम/भोले/सुन्दर होते हैं)
छाई रही मेरी आँखों में
फिर मन में अपनी छाप छोड़
सच में बदल गई
मैं बड़ा होता रहा इसी सच के साथ

उम्र,
के इस पड़ाव पर
जब आईना दिखाता है
सच
मुझसे सहन नही होता
मेरे मन पर छाई
अपनी वही तस्वीर नकार देती है
आईने का सच
और, मैं यह मानने लगता हूँ कि
लोग सच नही बोलते है
यहाँ तक की आईना भी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २९-मार्च-२००९ / समय : ०४:१५ दोपहर / घर

कण्डोम क्या होता है?

मंगलवार, 24 मार्च 2009

वो,
जब मुँह अंधेरे निकलते हैं
बाहर घर से
साथ होती है उम्मीदों भरी झोली
जिसमें कैद करने हैं
सारे सपनें और रोटी भी
कचरे के साथ

वो,
इस उम्र में भी सीख लेते हैं
वो सब और उन चीजों के बारे में
सभी कुछ
जिनके बारे में हमें बतियाते
अक्सर शर्म आती है

वो,
जब बिनते हैं कचरा
तो छांटते है, पहले
प्लास्टिक एकदम पहली पसंद पर
फिर पन्नियाँ / लोहा या और कुछ
इसी दौरान
उनके हाथ लगते हैं
इस्तेमाल के बाद फेंके हुये कण्डोम
कचरे के ढेर में
शायद पहली बार ठिठके होंगे
उनके हाथ उठाते हुये /
या कौतुहलवश छुआ होगा

बस,
यहीं से वो बच्चे सीखते है
कण्डोम, क्या होता है /
क्या काम आता है /
फिर वो सीखते है इस्तेमाल करना
और संस्कार हस्तांतरित होते हैं

यह,
सब सीखने के बाद
वह सीखते है कि
विकास के इस तेज दौर में भी
अभी नही ईजाद हुआ है तरीका
कण्डोम को इस्तेमाल बाद
डिस्पोज करने का

कण्डोम,
अब भी
रातों के अंधेरे में फेंके जाते है
कुछ इस तरह
जैसे कोई बच्चा उछाल देता है
पत्थर हवा में बिना किसी बात के
और यह भी नही सोचता कि
जिस आँगन में गिरेगा
वहां भी कोई बच्चा होगा
या कोई बस यूँ ही बहा देता है
फ्लश में और वह चोक किये होता है
ड्रेनेज घर से अगले मोड़ पर
या, यदि फेंका गया सड़क के उस पार
तो कचराघर को बदल देगा
जिन्दगी की पाठशाला में
और,
सीखने में मदद करेगा उन ब्च्चों की
जिनके घर नही होते
समय के पहले ही
कण्डोम क्या होता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-मार्च-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर

जूड़े में गुथे सवाल

बुधवार, 18 मार्च 2009

मैं,
जानता हूँ
तुम्हारे पास कुछ सवाल है
जो, अक्सर अनुत्तरित ही रह जाते हैं
मुट्ठी में बंद अनाज के दानों की तरह
जो सारी उम्र इंतजार ही करते रह जाते है
उनकी,
मिट्टी की तलाश पूरी ही नही होती

मैं,
यह भी जानता हूँ
कोई ऐसा अवसर नही होता
जब उनमें से ही कोई सवाल
रह-रहकर उभरता है
तुम्हारे चेहरे पर
फिर, कसमसोस कर घुट जाता है
तुम्हारे सिर झिटकने में /
या बिलावजह मुस्कराने में

मैं,
महसूस करता हूँ कि
वो सारे सवाल
जो नही कर पाये, जो जी में आया
रात को बिखरने लगते हैं
तुम्हारे तकिये पर
और तलाशते हैं वजूद अपना
तुम्हारी कुरेदी गई लकीरों में /
चादर में बुनी गई सिलवटों में /
या चबाये गये तकिये के कोने में
इसके पहले की
सुबह तुम फिर बटोर लो उन्हें
और,
गूंथ लो अपने जूड़े में
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १८-मार्च-२००९ / समय : १०:४० रात्रि / घर

पानी में बदली हुई आग!

गुरुवार, 12 मार्च 2009

तुम,
कैसे बदल लेती हो
सुने गये तानों को /
मिले हुये उलहानों को
तपन में
और पी लेती हो

फिर,
तुम बदलती हो
आग को पानी में
और,
जमा कर लेती हो
आँखों में

फिर,
तुम बनाती हो
रास्ता,
दिल से आँखों तक
कानों के बारास्ता

कि,
जो भी कचोटता है
तुम्हें
बस,
छलकने लगता है
आँखों से
और ढलकने लगती है
पानी में बदली हुई आग
गालों पर
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-मार्च-२००९ / समय : १०:४५ रात्रि / घर

वो गाती है कोई गीत

सोमवार, 9 मार्च 2009

उस,
रात जब बादल में चाँद खेल रहा था
पूल में झिलमिलाते पानी पर उतराती
आग लगाती जवानी

वो,
शायद इस शहर में कभी
अपने नाम से भी पहचानी गई हो
उस, अंधेरे कोने में
जहाँ कोई किसी को भी नही पहचान सकता हो
वह,
सज संवरकर गाती है
गजलें / विरह भरे गीत
और, बटोर लेती है सहानुभूति
गुनगुनाते हुये

वो,
जो अपने गमों से बेजार
उतर जाना चाहते थे
कुछ घूंट नशे में थिरकने लगते है
भूलने लगते हैं
सबकुछ वो सब जो हुआ है
दिनभर

बस,
शाम है गुनगुनी /
पूल का पानी है /
थिरकती जवानी है ./
गुनगुनाती हुई वो है /
गले नीचे उतरता जाम है
बाकी जो भी था
वो या तो ठीक है या हो जायेगा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-मार्च-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर

तुम्हारे कमरे से निकलने के बाद

सोमवार, 2 मार्च 2009

तुम,
अक्सर मुझे आवाज देती हो
मैं जब भी उतर चुका होता हूँ
दो चार सीढ़ियॉ

फिर,
मेरे लौट के आने पर
भेज देती हो उल्टे पाँव
कहते हुये
रहने दो, कुछ नही बस यूँ ही

या,
कभी पूछ बैठती हो
मैं कैसी लग रही हूँ
यह साडी ठीक तो है ना
या बदल लूँ ?

मेरे,
पास कुछ जवाब नही होता है
उन सवालों का
ना ही कोई च्वाईस होती है
सिवाय गर्दन हिलाने के /
या हाँ - हूं-हां बोलने के
यह अलग बात है कि
मैं,
कुछ भी सलाह दूँ
होना तो वही है
जो तुम चाहोगी
अलबत्ता,
मुझे रायशुमारी का मौका तो मिलता है

कभी-कभी,
तो लगता है कि
तुम्हें क्या हो जाता है
ना जाने कहाँ के और कैसे सवाल आते हैं
तुम्हारे दिमाग में
जिनमें सीधे-सीधे तो कुछ नही / पर
पीछे बहुत कुछ छिपा होता है
वो, भी जब मैं
उतर चुका होता हूँ
दो-चार सीढ़ियॉ
तुम्हारे कमरे से निकलने के बाद
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : 27-फरवरी-2009 / समय : 11:28 रात्रि / घर