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विस्मृतियाँ

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

कभी,
कुछ अज़ीब सा होता है
हमारे साथ
कहीं से गुजरते यह महसूस करते हैं
यह ज़गह कुछ जानी-पहचानी है
या कहीं यह महसूस करते है
कोई परिचित सी बू
या किसी चेहरे पर थम जाती है निग़ाहे
खोजती किसी पहचान को
ऐसा कुछ ना कुछ होता रहता है
हमारे आस-पास
विस्मृतियाँ,
तब पंख फ़ड़फ़ड़ाती हैं
जैसे किसी अंधेरी गुफ़ा में उड़ते हैं
इधर से उधर चमगादड़
कितना भी ध्यान करो कि
इस जग़ह/बू/चेहरे से क्या रिश्ता है
कुछ याद नही आ रहा है

यहाँ,
पहले ही कदम से
हवा में कुछ गुनगुनाहट सुनाई देने लगती है
गलियाँ, मोहल्ले पीछा करने लगते है
जैसे कुत्ते दौड़ते है गाड़ी के साथ भौंकते हुये
कुछ चेहरे खोजते है ना जाने क्या मुझमें
कुछ पहचाने से लगते हैं
नदी लिपटी जा रही है मेरे पैरों से
मुझ कुछ याद नही आ रहा है

फ़िर,
मेरे ख्यालों में दौड़ने लगता है
कोई बच्चा
सुनाई देने लगती है कुछ जानी-पहचानी सी आवाजें
बार-बार मेरा हाथ छू रहा होता है पेशानी
किसी एक जगह पर अटकता बार-बार
विस्मृतियाँ,
अब मधुमक्खी की तरह
भिनभिनाने लगी हैं
मुझे कुछ याद नही आ रहा है
अब भी

मैं,
तकरीबन बाहर आ चुका हूँ
वहां से
फ़िर भी
विस्मृतिय़ाँ सवार है सिर पे जूँ की तरह
आँखों से गुजर रहे है
गलियाँ, मोहल्ले, चौराहे, चौपाल, लोग
सभी कुछ पहचाने से
और,
मुझे अब तक कुछ याद नही आ रहे है
कुछ भी


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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २८-ऑक्टोबर-२००८ / समय : रात्रि ११:४३ / घर - दीपावली की रात

" टुकड़ों में बंटी हुई माँ "

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

शायद,
वो माँ होते हुये भी
टुकड़ों में बंटी हुई थी
या बेटों ने अपनी सुविधानुसार
बांट लिया था
अपने सामर्थ्य के अनुपात में

वो,
जैसे माँ ना होकर
केवल एक लाईब्लिटी में बदल गई थी
उसे बीमार भी होना पड़ता था
बेटों के शेड्यूल के हिसाब से
गर एक दिन भी ज्यादा हो तो
या तो दवाई नही मिलती थी
या खान उस दिन
जॊ भी था सीधा-सीधा हिसाब था

एक दिन,
छोडकर बेटों को अपने हाल पर
चल पड़ती है अंनत यात्रा पर
बेटें अब भी उलझे है हिसाब में
किसका कितना खर्च हुआ है
कौन कितने घंटे रुका अस्पताल में
अभी आगे कैसे खर्च करेगें
कि किसी एक पर बोझ ना आये

अब,
आत्मा तो चली गई है
इस नश्‍वर शरीर का क्या
जैसे भी हो उत्तम-मध्यम बस निपटाना भर है
बहुयें उलझ रही है
बेटे झगड़ रहे है / मोबाईल से चिपके हैं
शाम हो रही है
जो भी जुट आया है जैसे भी, जल्दी में है

माँ,
ज़मीन पर इंतज़ार कर रही है
अपनी अंतिम यात्रा का
और बेटे तलाश रहे है कंधे
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २१-ऑक्टोबर-२००८ / समय : ११:०५ रात्रि / घर

अम्माँ के जाने के बाद

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

अम्माँ,
जीवन से लड़ती हुई
हार कर चली गई हैं

ज़ब तक थी
तभी तक थी लोगों के लिये
काकी, बड़ी अम्माँ, बुआ, भाभी, दादी, नानी
और भी ना जाने क्या क्या
सभी से जैसे उसने जोड़ रक्‍खे थे
कुछ ना कुछ रिश्ते
ऐसा लगता था
अम्माँ खुद नही
रिश्तों को जी रही थी/
रिश्तों के लिये जी रही थी

आज,
जैसे थम गया हो यह सिलसिला
अम्माँ ने ओढ लिया है चिर मौन
जिन्दगी भर के बोये हुये रिश्ते
अपनी बारी पर
बचते फ़िर रहे है कसौटी से
किसी को छुट्‍टी नही मिल पा रही है
किसी को ज़ल्दी लौटना है
किसी सुबह आने में देर हो सकती है
किसी को शर्म आती है बाल मुंडाने में
अम्माँ को इस बेला पर
सिर्फ़ तय करना है सफ़र औपचारिकताँए पूरी करते
किसी के कंधे में दर्द है
और श्मसान दूर

अम्माँ,
सो रही है इस बात बेख़बर
कि किसी को काटनी है पूरी रात जागते हुये
और चाय कम से कम दो बार तो लगेगी ही
मच्छरों से बचने के उपाय खो़जेगा कोई
फ़िर,
बातें अम्माँ से शुरु होगीं
उनसे जुड़ी हुई यादों से होते हुये
और सिमट आयेगीं कि
अभी इन्क्रीमेंट नही लगा है
मंहगाई आसमान छू रही है
बच्चे नालायक है, कुछ सुनते ही नही
फ़िर चाय की तल़ब बैचेन कर देगी

अम्माँ,
तैयार दी गई है
इस महा-यात्रा के लिये
किसी के मन में रह रहकर आ रहा है
कौन नही आया है?
किस किस को ख़बर कर दी गई है?
अख़बार में अम्माँ की तस्वीर कमोबेश
सभी निहार रहे है
वो भी,
जिनकी निगाहे ही नही उठती थी कभी उसकी ओर
किसी की चिंता में हिसाब होगा
किसी की चिंता में इंतजा़म
किसी को चिंता में शोक सभा होगी
सभी जैसे उलझे हुये हों
किसी ना किसी फ़ेर में
केवल
जिन्दगी भर चिंता पालने वाली
अम्माँ, बेख़बर थी
इस बार
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २०-ऑक्टोबर-२००८ / समय : रात्रि : ११:०५ / घर

माँ को इस उम्र में समझाना

रविवार, 19 अक्तूबर 2008

माँ,
को इस उम्र में समझाना/
नई आदतें ढलाना /
या सिखाना कुछ और जो उसके संस्कारों /
परिवरिश से नही मेल खाता हो
बड़ी अज़ीब सी मुश्किल में डालता है

उपवास मत करो/
या छठे-चौमासे किया करो/
ये क्या हुआ कि पाञ्चांग देखा नही कि
शेड्यूल बना डाला उपवासों का
और यह भी भूल जाती हो कि
डायब्टिक हो भूखे नही रहना चाहिये

पूजा,
जितनी लंबी और देर तक हो सके
सुकून देती है उसे
घण्टों पैर मोड़े पालथी लगाये डू़बे रहना ध्यान में / भजन करना
मना किया जाये या
डॉक्टर की मनाही याद दिलाई जाए
कि जिस दर्द से ना तो ठीक से चल पाती हो/
ना खड़े रह पाती हो
यह कहाँ तक जायज है कि
दवा तो लें परहेज ना करें तो नाराज हो जाती है

हिदायतें,
जब बैठो तो स्टूल पर / कुर्सी पर बैठो
भले ही पूजा करनी हो या कुछ और
ज़मीन पर बैठना नही/ या कुछ ऐसे कि घुटनो पर नही आता हो ज़ोर
कैसी भी हो यूँ ही उड़ा देती है
जैसे हम उड़ाते है मच्छर
हालांकि,
उसके पास अपने तर्क भी होते हैं
अब क्या करना है सीख़ के
तुम्हारे तौर तरीके तुम्ही देखो
हमारी तो, जो भी बची है कट जायेगी

माँ,
को इस उम्र में समझाना/
नई आदतें ढलाना /
सिखाना कुछ और
बडा़ ही मुश्किल होता है।
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मुकेश कुमार तिवारी दिनांक : १५-अक्टोबर-२००८ / समय : ०४:३० दोपहर / ऑफ़िस में

विषय की खोज़ में

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

विषय,
वहीं थे मौजूदा jahan मैं खोज़ रहा था
और परेशान था कि कई दिन हो गये
कुछ लिख नही पाया
चौराहो पर बढती भीड़ के उन्माद में/
तंग सी गलियों में पसरे हुये/
पार्क में बिख़रे हुये रैपर्स की तरह/
या सिनेमा हाल में मूंगफ़ली के छिलकों की तरह
और मैं था कि परेशान विषय नही मिलते हैं


विषय,
थे तो घर में भी मौजूद
स्लीपर्स की टूटी बद्धियों में/
शर्ट की पलटी हुई कॉलर में/
दीवार पर टंगे कैलेण्डर में
जो तनख्वाह के साथ
अक्सर ही कुछ शुरुआती दिनों के बाद बेमानी सा हो जाता है
शायद,
अब मुझे ही ढालनी होगी आदत कि
उठा सकूँ विषय ज़ेब से गिर आये सिक्‍के की तरह
अपने ही आस-पास से


विषय,
वहां भी थे मौजूद जहाँ मैं गुम हो जाता हूँ
परे ढकेलते हुये उलझने
छलक रहे प्यालों में/
उगले गये धुयें में/
जहाँ अब भी मुटियाती औरतें दम साधे थिरक रहीं है
और मारे गये तानो की चीख़/
दिये गये उलाहनॊ की गूंज/
या तकादों की आहट बदल गई हैं ज़हर में
और सवार हो रही है आदमी पर

मैं,
अब भी परेशान हूँ
की मैं क्यों नही खोज पाता हूँ विषय?
इतने करीब रहकर भी
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मुकेश कुमार तिवारी dinaank : १३-ऑक्टोबर-२००८ / रात्रि : १२:२५ / घर

बूढियाँ, क्यों इतना जीती हैं?

सोमवार, 13 अक्तूबर 2008

बूढियाँ,
क्यों इतना जीती हैं?
कि उनके लिये
ना किसी के पास इतना वक्त होता है
कि बैठा सुनता रहे जुबाँ पर ही गुम हो जाते शब्दों को
और हुंकार भरता रहे बीसियों बार सुनी बातों पर
या बार-बार कोशिस करे उन कानों में शब्द डालने की

बूढियाँ,
क्यों इतना जीती हैं?
कि उनके लिये
कोई जगह नही बचती घर में
किसी टूटे फ़्रेम सी या कबाड सी
बस मारी-मारी फ़िरती रहती हैं
घर में इस कोने से उस कोने तक
कभी-कभी निकाल भी दी जाती हैं बाहर
या किसी के आने पर कैद कर दी जाती हैं
घर के पिछले हिस्से में

बूढियाँ,
क्यों नही मार दी जाती हैं?
इसके पहले कि
वो सडक पर फ़िरती रहे मारे-मारे
आवारा ढोर सी /
किसी के पास उसके लिये कोई फ़ुरसत नही हो
कि सुनता रहे उसकी बक-झक
और वो तंग आ गई हो दीवारों से बातें करते /
कोई कुछ नही पूछे उसके बारे में
भले ही नही दिखी हो कई दिनों से घर में
शुक्र है हमारे यहाँ मंदिर आदमी से ज्यादा है
जहाँ इतनी जगह तो रहती है कि
समा जायें सारे शहर की बूढियाँ
जूते-चप्पलों की भीड में भजन करते
या भीख माँगते बाहर
और हमें मौका देती रहे अपनी सदाशयता दिखाने का

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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २८-अगस्त-२००८ / समय : ११:४५ रात्रि / घर ( सांई मंदिर पाटनीपुरा, इन्दौर)

माँ, केवल माँ भर नही होती

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2008

माँ,
किसी भी उम्र में केवल माँ भर नही होती
जबकि वो खुद को भी नही संभाल पाती हो तब भी
विश्वास होती है / आसरा होती है

माँ,
के होने का मतलब है
जिसकी छाती पे चिपका सकते हो
तुम डरावने ख्वाब /कमरे में फ़ैले अंधकार को
जिससे तुम अब भी ड़र जाते हो कभी
तुम सो सकते हो उसकी गोद में रो सकते हो
उसके कंधो पर सिर रख कर माँग सकते हो
कुछ भी चाहे उसके पास हो ना हो पर वो कोशिश जरूर करती है खोजने की
मुँह उठा के मना नही करती

माँ,
इस उम्र में भी अपने से ज्यादा तुम्हारी चिंता करती है
रात बार-बार उठ के देख लेती हैकि तुम सो भी पा रहे हो या नही
तुम्हारे सिरहाने पानी रखा भी है या नही
कितनी बार तुम्हे कोफ़्त भी हु‌ई होगी कि ना खुद सोती हैं ना सोने देती हैं
और जब तुम किसी ख्वाब से कर रहे होते हो चुहल
तो मौका लगते ही सहला देती है तुम्हार सिर हौले से
फ़िर बुनने लगती है को‌ई कहानी तुम्हारे बच्चों के लिये
जिसमें अब भी राजकुमार तुम्हारे सिवाय को‌ई और नही होता है

माँ,
अपनी पूरी उम्र में कभी जी ही नही पाती है अपने लिये
या तो बुन रही होती है स्वेटर तुम्हारे लिये
या तो पाल रही होती है कोख़ में तुम्हें
या पिला रही होती है छाती
या जाग रही होती है रात भर तुम्हारे साथ
गोया परीक्षा देना हो उसे
या मांग रही होती है दु‌आयें
कभी तुम्हारे लिये कभी तुम्हारे बच्चों के लिये
कभी अपने लिये कुछ मांगा भी
तो अपनी आधी उम्र तुम्हें देने कि सिवाय कुछ और नही

माँ,
केवल माँ भर नही होती
अपनी जिन्दगी भर
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०८-ऑक्टोबर-२००८ / समय : ११:२० रात्रि / घर

अवसाद ग्रस्त लड़की

सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

लड़की,
बाहर आओ
तोड़ के सिमटते हुये दायरे को
छत के कोने पर खड़े हो फ़ैलाओ बाहों को
मह्सूस करो हवा में तैरने के लिये
तुम कभी लगा सकती हो छलांग
अनंत में तोड़ते हुये सारे बंधनों को

हथेलियों में,
कैद करो हवा में घुली हुई नमी को
और मुरझाते हुये सपनों को ताजा दम कर लो
या गूंथो कोई नया संकल्प

सुनो
हवा में गूंजते हुये संगीत को
और चुरा कर रखो किसी टुकड़े को अपने अंदर
वहीं, जहाँ तुम रखती हो अपनी सिसकियाँ सहेज कर
और छाने दो संगीत का खु़मार सिसकियों पर

देखो ठहरे हुये
पराग कणों को तुम्हारी चेहरे पर
और पनाह दो आँखों के नीचे बन आये काले दायरो में/
या बुनी जा रही झुर्रीयों में
और फ़ूलने दो नव-पल्लव विषाद रेखाओं के बीच

मह्सूस करो,
हवा में पल रही आग को
और उतार लो तपन को अपने सीने में
जहाँ रह-रह कर उमड़ते हैं ज्वार
और लौट आते हैं अलकों की सीमा से टकराकर

लड़की,
बाहर आओ, उठ खड़ी होओ
दीवार के बाद पीछे कोई जगह नही होती
और यदि कोने में हो तो कुछ और नही हो सकता
कब तक घुटनों पर रख सकोगी सिर/
आंसूओं का सैलाब बहाओगी/
अंधेरे में सिमटती रोशनी सी
कब तक लड़ सकोगी अकेली फ़ड़फ़डाते हुये

लड़की,
बाहर आओ, देखो
खुला आकाश/
हवा/नमी/संगीत/रोशनी/आग
और जिन्दगी
कर रहें है तुम्हारी प्रतीक्षा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १४-सितम्बर-२००८ / समय : ०६:३० सुबह / घर